अपराधी प्रवृत्ति के लोग निकाल रहे रेत, कर रहे मोटी कमाई, रेत की कमाई से बन गए लखपति, प्रशासन की मिलीभगत से तहसील ढीमरखेड़ा के अनेकों घाटों से निकल रही रेत ,चंद नोटों में बिक गया प्रशासन, कार्यवाही के नाम पर प्राप्त हैं संरक्षण
राहुल पाण्डेय की कलम

अपराधी प्रवृत्ति के लोग निकाल रहे रेत, कर रहे मोटी कमाई, रेत की कमाई से बन गए लखपति, प्रशासन की मिलीभगत से तहसील ढीमरखेड़ा के अनेकों घाटों से निकल रही रेत ,चंद नोटों में बिक गया प्रशासन, कार्यवाही के नाम पर प्राप्त हैं संरक्षण
ढीमरखेड़ा | आज के समय में प्राकृतिक संसाधनों का महत्व किसी से छुपा नहीं है। पानी, जंगल और खनिज संपदा हमारे लिए अमूल्य धरोहर हैं। मगर अफ़सोस की बात यह है कि लालच और भ्रष्टाचार के चलते यह धरोहर लगातार नष्ट हो रही है। तहसील ढीमरखेड़ा के अनेकों घाटों से रेत का अवैध दोहन इसका ताज़ा उदाहरण है। प्रशासन की अनदेखी और मिलीभगत के कारण घाट-घाट से रेत ट्रैक्टर, डंपर और ट्रकों में भरकर बेची जा रही है। चंद नोटों के लालच में पूरा प्रशासन ही बिकता नज़र आ रहा है।
*रेत माफ़ियाओं का बोलबाला*
ढीमरखेड़ा क्षेत्र में नदी-नालों से रेत का खनन लंबे समय से होता आया है। यह खनन नियंत्रित और वैध हो तो किसी हद तक सहनीय है, क्योंकि विकास कार्यों, भवन निर्माण और रोज़गार के लिए रेत की आवश्यकता पड़ती है। लेकिन जब खनन अवैध हो, अनियंत्रित हो और केवल कुछ लोगों की जेब भरने का साधन बन जाए, तब यह पूरे समाज और पर्यावरण के लिए विनाशकारी साबित होता है। यहाँ रेत माफ़ियाओं का इतना दबदबा है कि आम आदमी उनके सामने बोलने से डरता है। किसी ने विरोध करने की कोशिश की तो उसे धमकियाँ दी जाती हैं। कई बार तो मारपीट और झूठे मुकदमों का सामना भी करना पड़ता है।
*प्रशासन की भूमिका पहरेदार या भागीदार*
सबसे बड़ा सवाल यह है कि प्रशासन क्या कर रहा है? तहसील और ज़िला स्तर पर राजस्व विभाग, पुलिस, खनन विभाग और पर्यावरण विभाग जैसी कई एजेंसियाँ मौजूद हैं जिनकी ज़िम्मेदारी है कि वे अवैध खनन पर रोक लगाएँ। मगर ढीमरखेड़ा में तस्वीर इसके उलट है। आरोप है कि स्थानीय अधिकारी और कर्मचारी रेत माफ़ियाओं से मोटी रकम लेकर आँखें मूँद लेते हैं।कभी-कभार खानापूर्ति के लिए छापे डाले जाते हैं, लेकिन पहले से सूचना पहुँच जाती है और बड़े वाहन बच निकलते हैं। अगर कोई पकड़ा भी जाता है तो उस पर इतना मामूली जुर्माना लगाया जाता है कि वह अगले ही दिन फिर से उसी धंधे में लग जाता है। यानी जिस प्रशासन को पहरेदार होना चाहिए, वही भागीदार बन चुका है।
*पर्यावरण और समाज पर असर*
अवैध रेत खनन का असर केवल घाटों तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह पूरे पारिस्थितिकी तंत्र और समाज को प्रभावित करता है। अंधाधुंध खनन से नदियों का प्राकृतिक प्रवाह बाधित होता है। पानी का स्तर गिरता है और गर्मी के दिनों में जलसंकट गहराता है। नदी किनारे की उपजाऊ भूमि बंजर होती जा रही है। जब रेत निकाल ली जाती है, तब मिट्टी का संतुलन बिगड़ जाता है और पैदावार घटने लगती है। मछलियों, पक्षियों और अन्य जलीय जीवों का प्राकृतिक आवास नष्ट हो जाता है। भारी ट्रकों की आवाजाही से गाँवों की सड़कों की हालत खराब हो रही है। धूल और प्रदूषण से बीमारियाँ फैल रही हैं। रेत माफ़ियाओं के हौसले इतने बुलंद हो जाते हैं कि वे खुलेआम प्रशासन और जनता को चुनौती देने लगते हैं।
*स्थानीय जनता हों रही परेशान कोई ध्यान देने वाला नहीं है*
ढीमरखेड़ा के ग्रामीणों को इस समस्या का सबसे ज्यादा सामना करना पड़ रहा है। नदियों से रेत चोरी-छिपे निकलती है, लेकिन नुकसान ग्रामीणों को झेलना पड़ता है। उन्हें पीने का पानी मुश्किल से मिलता है। उनकी फसलें सूख जाती हैं। ट्रकों से हादसे बढ़ जाते हैं। अगर वे आवाज़ उठाते हैं तो उन्हें दबा दिया जाता है। कई बार ग्रामीणों ने प्रशासन से गुहार लगाई, ज्ञापन सौंपे और मीडिया के सामने अपनी बात रखी, मगर नतीजा वही ढाक के तीन पात। अधिकारी कार्रवाई का आश्वासन देते हैं, परंतु जमीनी स्तर पर हालात जस के तस बने रहते हैं।
*नेता खुद रेत चोरी का बनाया धंधा*
इस पूरे खेल में राजनीतिक संरक्षण की भूमिका भी सामने आती है। रेत माफ़ियाओं का सीधा ताल्लुक स्थानीय नेताओं से जुड़ा होता है। चुनावों में मोटी रकम खर्च होती है और उसका स्रोत यही अवैध खनन होता है। इसलिए कई जनप्रतिनिधि भी इस मुद्दे पर चुप्पी साध लेते हैं। जब राजनीति और प्रशासन दोनों ही मौन हो जाएँ, तब आम जनता की आवाज़ दब जाती है।




