प्रशासनमध्यप्रदेश

गरीब मनुष्य वह ढोलक है जो दोनों ओर से पीटा जाता है शासन-प्रशासन की व्यवस्था में पिसता आम आदमी, हर दिशा से चोट खाता मेहनतकश वर्ग समाज की जमीनी हकीकत को कलम के माध्यम से सामने लाने का प्रयास

कलयुग की कलम से राकेश यादव

गरीब मनुष्य वह ढोलक है जो दोनों ओर से पीटा जाता है शासन-प्रशासन की व्यवस्था में पिसता आम आदमी, हर दिशा से चोट खाता मेहनतकश वर्ग समाज की जमीनी हकीकत को कलम के माध्यम से सामने लाने का प्रयास

कलयुग की कलम उमरिया पान – गरीब मनुष्य इस समाज का वह ढोलक है, जिसे दोनों ओर से बजाया जाता है — एक तरफ शासन-प्रशासन की नीतियाँ, और दूसरी ओर व्यवस्था में पल रहे प्रभावशाली वर्गों का दबाव। जब भी कोई समस्या आती है, जब भी कोई नियम बनता है, उसका सबसे बड़ा भार गरीब की पीठ पर ही डाला जाता है। गरीब की आवाज़ अक्सर इतनी धीमी होती है कि शासन के गलियारों तक पहुँचने से पहले ही खो जाती है।

सच तो यह है कि जिस लोकतंत्र में जनता सर्वोच्च कही जाती है, वहीं गरीब नागरिक आज भी सबसे निचले पायदान पर संघर्ष कर रहा है। उसका जीवन रोज़मर्रा की जद्दोजहद में बीत जाता है—कभी रोटी की चिंता में, कभी बच्चों की पढ़ाई की सोच में, कभी दवाई के लिए भटकते हुए। मेहनत और ईमानदारी उसकी पहचान है, पर सम्मान और सुविधा आज भी उसके लिए किसी सपने से कम नहीं।

नीतियाँ बनती हैं, लेकिन राहत कहाँ?

सरकारें आती हैं, घोषणाएँ होती हैं, और योजनाओं के नाम पर पोस्टर लगते हैं। लेकिन जब उन योजनाओं का लाभ लेने की बारी आती है, तो सबसे पीछे खड़ा गरीब फिर छूट जाता है। गरीब के लिए “कागज़” सबसे बड़ी दीवार बन जाता है। न उसके पास सिफारिश होती है, न पहुँच। परिणामस्वरूप वही व्यक्ति जो सबसे अधिक ज़रूरतमंद है, सबसे अंत में लाभ देख पाता है — या कई बार कभी नहीं।

प्रशासनिक दफ्तरों के चक्कर काटते-काटते उसका दिन और उम्मीद दोनों खत्म हो जाती हैं। कई बार वह सोचता है कि शायद अगली बार उसकी भी सुनवाई होगी, लेकिन व्यवस्था की बेमानी प्रक्रियाएँ और अफ़सरशाही की ठंडक उसकी आवाज़ को फिर दबा देती हैं। शासन-प्रशासन जब किसी प्रभावशाली या सम्पन्न व्यक्ति की बात सुनता है, तो फ़ैसला कुछ ही घंटों में हो जाता है, पर वही बात गरीब कहे तो महीनों की फाइलों में धूल खा जाती है।

बच्चों की पढ़ाई और पेट की लड़ाई

गरीब की ज़िंदगी दो मोर्चों पर लगातार चलती रहती है — एक, पेट की लड़ाई; दूसरा, बच्चों की पढ़ाई। वह चाहता है कि उसका बेटा या बेटी उससे बेहतर जीवन जिए, लेकिन हालात बार-बार उसके सपनों पर पानी फेर देते हैं। स्कूल की फीस, किताबें, यूनिफॉर्म, या बस का किराया — हर चीज़ उसके लिए चुनौती है।वह चाहता है कि उसके बच्चे पढ़-लिखकर सम्मान से जीवन बिताएँ, लेकिन गरीबी बार-बार शिक्षा की राह में दीवार बन जाती है।

“गरीबी में पढ़ाई भी महंगी लगती है और बीमारी में दवाई भी,” यह वाक्य गरीब के जीवन का यथार्थ है। जब परिवार में कोई बीमार होता है, तो वह यह नहीं सोच पाता कि किस डॉक्टर के पास जाए, बल्कि यह सोचता है कि इलाज करवाए या रोटी खरीदे। यही असली त्रासदी है।

शासन की चुप्पी और गरीब की पुकार

जब गरीब अपने हक़ के लिए आवाज़ उठाता है, तो उसे ‘अशांत’ या ‘उपद्रवी’ कह दिया जाता है। लेकिन जब कोई प्रभावशाली व्यक्ति अपने हित के लिए नियम तोड़ता है, तो वही शासन चुप्पी साध लेता है।

गरीब के घर का गिरना प्रशासन को “रिपोर्ट” लगता है, पर अमीर की दीवार पर दरार पड़ जाए तो “तत्काल निरीक्षण” हो जाता है। यह असमानता सिर्फ आर्थिक नहीं, मानसिक भी है — एक ऐसा फर्क, जिसे आजादी के इतने साल बाद भी मिटाया नहीं जा सका।

गरीब का धैर्य—उसकी सबसे बड़ी मजबूरी

गरीब आदमी सबकुछ सहता है, क्योंकि उसके पास विकल्प नहीं। वह हर आघात को चुपचाप झेलता है, जैसे ढोलक हर चोट को संगीत में बदल देता है। लेकिन यह मत भूलिए कि हर ढोलक की एक सीमा होती है—जब उस पर लगातार प्रहार होता है, तो वह भी फट जाती है। उसी तरह, जब गरीब की सहनशीलता टूटती है, तो समाज में विस्फोट होता है।

वह सुबह से शाम तक मजदूरी करता है, खेतों में पसीना बहाता है, निर्माण स्थलों पर ईंटें ढोता है, फिर भी अपने बच्चों के लिए एक सम्मानजनक भोजन जुटाना उसके लिए चुनौती बनी रहती है। उसके जीवन की यही विडंबना है — वह सबके लिए काम करता है, लेकिन खुद के लिए कुछ भी पक्का नहीं।

अब वक्त है सोचने का

समाज के विकास की असली कसौटी गरीब की मुस्कान में है। अगर शासन-प्रशासन की योजनाएँ उसे राहत नहीं दे पा रहीं, तो हमें अपनी नीतियों की दिशा और नीयत दोनों पर पुनर्विचार करना होगा। किसी भी व्यवस्था का मूल्यांकन इस आधार पर होना चाहिए कि वह सबसे कमजोर नागरिक के लिए कितनी उपयोगी है।

गरीब की सुध लेने का मतलब सिर्फ योजनाएँ बनाना नहीं, बल्कि उन योजनाओं को उसके घर तक सही तरीके से पहुँचाना है।गरीबी कोई अपराध नहीं, बल्कि सामाजिक असमानता का परिणाम है। जो गरीब आज पिस रहा है, वही समाज की नींव भी है। उसका श्रम, उसका पसीना और उसकी ईमानदारी ही इस देश की अर्थव्यवस्था की असली ताकत है।

🖋️ संपादकीय लेख — राकेश यादव

(समाज की जमीनी हकीकत को कलम के माध्यम से सामने लाने का प्रयास)

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