मध्यप्रदेश

दर्द कितना खुशनसीब है जिसे पाकर लोग अपनों को याद करते हैं और दौलत कितनी बदनसीब है जिसे पाकर लोग अपनों को भूल जाते हैं

कलयुग की कलम से राकेश यादव

दर्द कितना खुशनसीब है जिसे पाकर लोग अपनों को याद करते हैं और दौलत कितनी बदनसीब है जिसे पाकर लोग अपनों को भूल जाते हैं

 कलयुग की कलम ढीमरखेड़ा-दैनिक ताजा खबर’ के प्रधान संपादक, राहुल पाण्डेय का कहना है कि दर्द कितना खुशनसीब है जिसे पाकर लोग अपनों को याद करते हैं और दौलत कितनी बदनसीब है जिसे पाकर लोग अपनों को भूल जाते हैं,” यह वाक्य समाज के मौजूदा हालात, मानव स्वभाव, और हमारी प्राथमिकताओं पर एक गहरा सवाल खड़ा करता है। दर्द, चाहे शारीरिक हो या मानसिक, एक ऐसी स्थिति है जो हमें हमारे जीवन की वास्तविकता से जोड़ती है। यह मानव जीवन का अभिन्न हिस्सा है और इसकी उपस्थिति में हम अपने अपनों को सबसे अधिक याद करते हैं। जब हम पीड़ा में होते हैं, तो हमें अपने परिवार, दोस्तों, और प्रियजनों की आवश्यकता महसूस होती है। यह स्थिति हमें यह एहसास दिलाती है कि जीवन में रिश्तों की क्या अहमियत है। दर्द एक ऐसी भावना है जो हमें अपनी कमजोरियों, संवेदनाओं, और इंसानियत की गहराइयों से रूबरू कराती है। इसके माध्यम से हमें अपने जीवन के उन पहलुओं को समझने का मौका मिलता है जिन्हें हम शायद दौड़ते-भागते जीवन में अक्सर भूल जाते हैं। दर्द की स्थिति में ही हम अपने आपको सबसे अधिक ईमानदारी से देखते हैं, और यह भी तब ही होता है जब हमें अपनों की सबसे ज्यादा याद आती है।

 *दौलत और आत्ममोह रिश्तों के भूलने का कारण*

वहीं दूसरी ओर, दौलत की अपनी एक अलग कहानी है। दौलत या धन, एक ऐसी चीज है जो मानवीय लालसाओं को जन्म देती है। धन की प्राप्ति के बाद, अक्सर लोग भौतिक सुख-सुविधाओं में इतने मग्न हो जाते हैं कि वे उन रिश्तों, संबंधों, और मानवीय मूल्यों को भूल जाते हैं जो जीवन के असली खजाने होते हैं। धन की अंधी दौड़ में लोग अक्सर अपने परिवार, दोस्तों और अपने करीबी लोगों को नजरअंदाज कर देते हैं। यह दौलत का ही असर है जो हमें इतना आत्ममोहित कर देता है कि हम भूल जाते हैं कि जीवन की असली संपत्ति हमारी भावनाएं और संबंध होते हैं, न कि केवल बैंक बैलेंस। दौलत पाने के बाद इंसान में एक प्रकार का अभिमान या अहंकार आ जाता है, जो उन्हें अपनी जड़ों से दूर कर देता है।

 *दर्द मिलते ही मनुष्य रिश्तों की तरफ होता है वापस*

यदि हम इसे समाज के दृष्टिकोण से देखें, तो राहुल पाण्डेय का यह कथन वर्तमान समय की सच्चाई को दर्शाता है। समाज में अधिकतर लोग दौलत के पीछे भाग रहे हैं, और इस प्रक्रिया में वे अपने संबंधों, मूल्यों, और इंसानियत को भूलते जा रहे हैं। समाज में गरीबी और अमीरी की खाई बढ़ रही है, और इसका मुख्य कारण यही है कि लोग दौलत के लिए अपनी नैतिकता, संबंध, और भावनाओं को ताक पर रख देते हैं। दूसरी ओर, दर्द और पीड़ा के क्षण हमें यह एहसास कराते हैं कि हम सब अंततः एक समान हैं। चाहे कोई कितना भी अमीर या गरीब क्यों न हो, दर्द की भावना हमें जोड़ती है और हमें यह एहसास दिलाती है कि जीवन का असली सार रिश्तों और भावनाओं में ही है।

*मानव स्वभाव की दोहरी प्रवृत्ति*

मानव स्वभाव की एक विशेषता यह है कि हम अक्सर उन चीजों की कद्र नहीं करते जो हमें मुफ्त में मिलती हैं, जैसे कि परिवार, दोस्ती, प्यार, और समर्थन। लेकिन जैसे ही हमें इनसे दूर कर दिया जाता है, खासकर दर्द या कठिनाइयों के समय में, हम उनकी असली कीमत को समझते हैं। दूसरी तरफ, दौलत के लिए हमारी लालसा हमें हमारे नैतिक कर्तव्यों से विमुख कर देती है। राहुल पाण्डेय का कथन इसी मानव स्वभाव की ओर इशारा करता है, जहां दर्द को ‘खुशनसीब’ कहा गया है क्योंकि यह हमें उन रिश्तों और लोगों की याद दिलाता है जो हमारे जीवन में असल मायने रखते हैं। वहीं, दौलत को ‘बदनसीब’ इसलिए कहा गया है क्योंकि इसके कारण हम अपने जीवन की असली खुशियों से दूर हो जाते हैं।

 *दौलत मनुष्य के अंदर पैदा करती हैं अहंकार*

मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से, दर्द और दौलत दोनों ही हमारी भावनाओं और मानसिकता को प्रभावित करते हैं, लेकिन इनके परिणाम अलग-अलग होते हैं। दर्द हमें अपनी कमजोरियों और संवेदनाओं से जोड़ता है, जिससे हम अपनी वास्तविकता को समझ पाते हैं। दूसरी ओर, दौलत हमारे अहंकार और स्वार्थ को बढ़ाती है, जिससे हम अपने संबंधों को महत्वहीन समझने लगते हैं। यह स्थिति हमें मानसिक और भावनात्मक रूप से अकेला कर देती है।

 *जीवन के सार की ओर लौटना होना नहीं तो रिश्ते हों जाएंगे खत्म*

राहुल पाण्डेय का कथन हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि हम अपने जीवन में किसे प्राथमिकता दे रहे हैं। क्या हम दौलत के पीछे भागते हुए अपने वास्तविक रिश्तों को भूल रहे हैं? क्या हम दर्द और पीड़ा से भाग रहे हैं, या उन्हें अपनाकर अपने जीवन की असली सीखें सीख रहे हैं? इस कथन के माध्यम से, यह स्पष्ट होता है कि जीवन का असली अर्थ धन या भौतिक सुखों में नहीं, बल्कि उन रिश्तों, भावनाओं, और मूल्यों में है जो हमें इंसान बनाते हैं। राहुल पाण्डेय का यह कथन हमें जीवन की गहराइयों को समझने के लिए प्रेरित करता है। यह हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि हम किस प्रकार की जिंदगी जीना चाहते हैं। क्या हम दौलत के पीछे भागते हुए अपनी असली खुशियों और रिश्तों को भूलना चाहते हैं, या हम अपने दर्द और कठिनाइयों को अपनाकर जीवन की सच्चाईयों को समझना चाहते हैं? यह कथन हमें याद दिलाता है कि दर्द और दौलत दोनों का अपना-अपना स्थान है, लेकिन यह हमारे ऊपर निर्भर करता है कि हम किसे अपनी प्राथमिकता बनाते हैं। दौलत से भले ही हमें भौतिक सुख मिल जाए, लेकिन असली खुशी और शांति तो केवल अपनों के साथ ही मिलती है, इसलिए जीवन में संतुलन बनाए रखना और अपने संबंधों को प्राथमिकता देना ही सच्चे अर्थों में हमारी खुशियों का असली आधार हो सकता है।

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