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स्थानांतरण नीति में भ्रष्टाचार मनचाही जगह के लिए नोटों की बोली!…

कलयुग की कलम से सोनू त्रिपाठी

ढीमरखेड़ा- शीर्षक पढ़कर दंग मत होना यह कहानी हैं स्थानांतरण प्रक्रिया की, सरकारी तंत्र में वर्षों से व्याप्त एक ऐसी गंभीर समस्या है जो न केवल कर्मचारियों के मनोबल को गिरा रही है बल्कि जनसेवा के उद्देश्य को भी प्रभावित कर रही है। यह समस्या है स्थानांतरण नीति में गहराया हुआ भ्रष्टाचार। यदि किसी भी शासकीय विभाग में कार्यरत कर्मचारी या अधिकारी को अपनी मनचाही जगह पर स्थानांतरण कराना है तो उसकी कीमत न्यूनतम एक लाख रुपये से शुरू होकर पांच लाख रुपये तक जा पहुंचती है। यह रकम कर्मचारी की पदस्थापना, विभाग, पद, राजनीतिक पहुँच, और विभागीय मांग पर निर्भर करती है।

भ्रष्टाचार का यह खेल किस प्रकार चलता है?

जैसे ही राज्य सरकार किसी विभाग में स्थानांतरण नीति घोषित करती है वैसे ही ‘स्थानांतरण ब्रोकरों’ की सक्रियता बढ़ जाती है। ये बिचौलिए नेताओं, मंत्रियों, विभागीय अधिकारियों के खास माने जाते हैं। इनके माध्यम से कर्मचारी अपनी पसंदीदा जगह के लिए संपर्क करते हैं और यहीं से सौदेबाजी की शुरुआत होती है। “कहानी शुरू होती है एक लाख से” जैसे-जैसे कर्मचारी के पद और मनचाही जगह का महत्व बढ़ता है, वैसे-वैसे रकम भी बढ़ती जाती है। कोई जिला मुख्यालय चाहता है तो 2-3 लाख का पैकेज तय होता है। यदि राजधानी या बड़ा शहर चाहिए तो यह रकम 5 लाख या इससे अधिक भी हो सकती है। यह रकम देने के लिए कर्मचारी भी मजबूर हैं, क्योंकि यदि वे इस ‘दल्लाली तंत्र’ को पैसा नहीं देंगे तो उन्हें दूरदराज, असुविधाजनक, पिछड़े या नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में भेज दिया जाता है। जो कर्मचारी ईमानदार होते हैं और इस भ्रष्ट तंत्र में भागीदारी नहीं करना चाहते उन्हें प्रताड़ना और मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है।

नेताओं की भूमिका मलाई काटने का जरिया

स्थानांतरण एक ऐसा हथियार बन गया है जो मंत्रियों, विधायकों और नेताओं के लिए मलाई काटने का सुनहरा अवसर प्रदान करता है। नेताओं के पास यह अधिकार होता है कि वे किस कर्मचारी को कहाँ भेजें। नेता इन पदस्थापनों के लिए न केवल बिचौलियों का सहारा लेते हैं बल्कि विभागीय सचिवों, कलेक्टरों, पुलिस अधीक्षकों आदि को भी प्रभावित करते हैं। कई विधायक और मंत्री तो खुलेआम अपने क्षेत्र के कर्मचारियों से यह कह देते हैं कि यदि मनचाहा स्थान चाहिए तो “सेवा शुल्क” देना ही होगा। इस “सेवा शुल्क” का सीधा हिस्सा ऊपर तक जाता है मंत्री, विधायक, दल के संगठन स्तर तक।

भीड़ का आलम हर कोई लाइन में

आज की स्थिति यह है कि जैसे ही स्थानांतरण प्रक्रिया की अधिसूचना जारी होती है, कर्मचारियों की भीड़ नेताओं के बंगलों, मंत्रियों के आवासों, दलालों के दफ्तरों में लग जाती है। हर कर्मचारी चाहता है कि उसे ऐसी जगह मिले जहाँ से वह कम समय में अधिक पैसा कमा सके, सुख-सुविधाएं मिलें, परिवार पास में रहे और सामाजिक प्रतिष्ठा भी बढ़े।

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