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राजनीति और पैसे के खेल से आए दिन बदल रहे बीईओ, नेतागिरी इतनी हावी की शिक्षक तक लगा देते हैं अपनी पूरी ताकत, जनपद शिक्षा केंद्र ढीमरखेड़ा का मामला..

कलयुग की कलम से सोनू त्रिपाठी की रिपोर्ट

कटनी- जिले के विकासखंड ढीमरखेड़ा का जनपद शिक्षा केंद्र इन दिनों शिक्षा से ज़्यादा राजनीति का अखाड़ा बन गया है। जहां कभी बच्चों के भविष्य और शिक्षकों के विकास की बातें होती थीं, वहां अब सत्ता, पैसे और गुटबाज़ी का बोलबाला है। राजनीति की पकड़ इतनी मज़बूत हो चुकी है कि शिक्षकों से लेकर ब्लॉक शिक्षा अधिकारी (BEO) तक इस खेल के मोहरे बन चुके हैं।हालात यह हैं कि अब शिक्षा की जगह नेतागिरी चलती है और शिक्षण का उद्देश्य पीछे छूट गया है।

शिक्षा केंद्र में नेतागिरी का बोल-बाला

जनपद शिक्षा केंद्र ढीमरखेड़ा में अब शिक्षण और शैक्षणिक प्रगति की बात कम, और राजनीतिक समीकरणों की चर्चा ज़्यादा होती है। जो शिक्षक जितना प्रभावशाली “ग्रुप” से जुड़ा है, उतनी ही उसकी पकड़ शिक्षा विभाग में मज़बूत मानी जाती है। इन ग्रुपों में बंटे शिक्षकों ने शिक्षा को छोड़कर राजनीति का ऐसा जाल बिछा दिया है कि ईमानदारी से काम करने वाले शिक्षक खुद को असहाय महसूस करते हैं। कई छुटभैया शिक्षक खुद को बड़ा नेता समझने लगे हैं। वे शिक्षा के बजाय अपने “पद” और “पहचान” को मज़बूत करने में लगे हुए हैं। बच्चे क्या सीख रहे हैं, स्कूलों की स्थिति क्या है इन सब बातों से अब किसी को मतलब नहीं। असल में, सत्ता और पैसे का असर इतना बढ़ गया है कि विभागीय कार्यवाही भी उसी के हिसाब से होती है।

पैसे का खेल ‘कीमत सही होनी चाहिए’ वाली व्यवस्था

ढीमरखेड़ा जनपद शिक्षा केंद्र में एक कड़वा सच यह भी है कि यहां “पैसे के दम पर सब बिकता है।” चाहे तबादला हो, पदस्थापना हो या किसी स्कूल का निरीक्षण अगर कीमत सही हो, तो सब कुछ संभव है। यह स्थिति न केवल शिक्षा विभाग की छवि को धूमिल कर रही है, बल्कि उन शिक्षकों के लिए भी निराशाजनक है जो अपने कर्तव्यों को निष्ठा से निभा रहे हैं। सूत्रों के मुताबिक, कुछ शिक्षकों ने विभागीय अधिकारियों के साथ मिलकर ऐसा नेटवर्क बना लिया है, जिसमें निर्णय शिक्षा की गुणवत्ता देखकर नहीं, बल्कि जेब की गर्मी देखकर लिए जाते हैं। जो शिक्षक पैसा खर्च करता है, उसे मनचाहा स्कूल मिल जाता है, और जो ईमानदार है, उसे दूरदराज़ के इलाकों में धकेल दिया जाता है।

राजनीतिक दबाव में दबे अधिकारी

ब्लॉक शिक्षा अधिकारी (BEO) से लेकर क्लर्क तक, सब पर राजनीतिक दबाव का असर साफ़ दिखता है। नेताओं के फोन, सिफारिशें और आदेश यहां आम बात हो चुकी हैं। कोई भी फ़ैसला बिना राजनीतिक दखल के नहीं होता। कई बार योग्य और मेहनती शिक्षकों की उपेक्षा सिर्फ इसलिए कर दी जाती है क्योंकि वे किसी राजनीतिक गुट से जुड़े नहीं होते। विभाग में फैली यह राजनीति अब सीधे बच्चों की शिक्षा पर असर डाल रही है। कई विद्यालयों में शिक्षण कार्य प्रभावित है क्योंकि शिक्षक अपनी “पद की राजनीति” में व्यस्त हैं। निरीक्षण के नाम पर सिर्फ औपचारिकताएं पूरी की जाती हैं, जबकि हकीकत में बच्चों की पढ़ाई पर ध्यान नहीं दिया जाता।

शिक्षक भूल गए अपनी असली ज़िम्मेदारी

शिक्षक समाज का वह वर्ग है जिससे उम्मीद की जाती है कि वह आने वाली पीढ़ी को दिशा देगा। लेकिन जब वही शिक्षक राजनीतिक झगड़ों में उलझ जाएं, तो शिक्षा का उद्देश्य अधूरा रह जाता है। ढीमरखेड़ा में अब शिक्षकों का एक बड़ा तबका “ग्रुप पॉलिटिक्स” में बंट चुका है कोई “फला” गुट का सदस्य है, तो कोई “फलां” गुट का विरोधी। इन ग्रुपों के बीच झगड़े इतने बढ़ गए हैं कि कई बार मीटिंग में भी बहस और विवाद देखने को मिलते हैं। जिन बैठकों का मकसद शिक्षा सुधार होना चाहिए, वे अब राजनीतिक बहसों का मंच बन चुकी हैं।

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