*********** पैराशूट ***********
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कई घटनाएं मन मस्तिष्क में ऐसे घर कर जाती है कि अगर अचानक कभी ऐसी घटना पुनः याद आ जाए तो पूरा शरीर भय से कांप उठता है यही सोचकर कि अगर उस घड़ी ईश्वर ने मदद न की होती तो – – – ?
ऐसी ही एक घटना मेरे बचपन की , कभी कभी याद आ जाती है तो सिहर उठता हूं ।
यह घटना वर्ष 1967-68 के आसपास की है । उस समय हम लोग मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले में रहते थे , चूंकि मेरे पापा शासकीय सेवा में थे अतः एक स्थान से अन्य स्थान में ट्रांसफर होते हुए हम भाटापारा ( छत्तीसगढ़ ) से बालाघाट मय परिवार आए , मेरे पापा पी डब्ल्यू डी ( बी & आर ) में क्लर्क के पद पर थे । बालाघाट में हम लोग राम गली कंडरा मोहल्ला वार्ड नंबर आठ में जिस मकान में उन दिनों किराए से रहते थे वो रायजादा बिल्डिंग के नाम से फेमस थी। रायजादा बिल्डिंग में नीचे ग्राउंड फ्लोर में तकरीबन छै या सात फ्लैट थे , इसके ऊपर प्रथम तल पर लगभग बारह से चौदह सिंगल रूम बने थे , इसमें कामन लेट बाथ था। जिसे स्कूल कालेज के पढ़ने वाले बच्चों ने किराए पर ले रखा था , और इसके ऊपर खुली छत थी जिसमें उस समय कोई भी बाउंड्री वॉल नहीं बनी थी ।
हम लोग उन दिनों ग्राउंड फ्लोर में रहते थे और गुजरी चौक स्थित प्रायमरी स्कूल में पापा ने मेरा चौथी कक्षा में एडमिशन करवा दिया। शुरू शुरू में कुछ दिनों तक मुझे यहां कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था , क्योंकि नई जगह अपरिचित लोग । बार बार भाटापारा में छूट गए यार दोस्त ही याद आते थे , और अक्सर खूब रोया करता था । इस पर मम्मी मुझे खूब समझाती और हिम्मत दिया करती थी ,बहरहाल धीरे धीरे मैं नई जगह बालाघाट में रमने लगा और बहुत सारे नए दोस्त बन गए । पुरानी यादों को लगभग भूल ही चुका था ।
उन्ही दिनों वहां बाजार से लेकर गली कूचों तक में प्लास्टिक ( पौलीथीन ) से बने बच्चों के खेलने वाले पैराशूट ( छतरी ) खूब बिकने लगे थे । रंग बिरंगे कई डिजाइनों के सुंदर सुंदर पैराशूट बच्चों के हाथों में दिखाई देने लगे थे । पैराशूट के निचले हिस्से में एक छोटा सा भारी लकड़ी का टुकड़ा मजबूती से धागों से बंधा होता था और इसे पूरा गोल लपेट कर बच्चे पूरी ताकत से ऊपर आसमान की तरफ उछाल देते फिर जब वो खुलकर नीचे धीरे धीरे वापस उड़ता हुआ लौटता , तब बहुत ही मजा आता था और खुश होकर बच्चे तालियां बजाते शोर मचाते थे। वाकई में बहुत मज़ा आता था ।
मैंने भी जिद करके मम्मी से पैसे मांगकर एक पैराशूट खरीद ही लिया और मैं भी इस खेल में अपने दोस्तों के साथ शामिल हो गया । पैराशूट का खेल जब चलता तब मेरे कुछ ज्ञानी दोस्त सबको बताते कि ऐसा ही बहुत विशाल पैराशूट होता है , जिसे पहनकर लोग उड़ते हुए हवाई जहाज से नीचे पृथ्वी की ओर कूदकर अपनी जान बचाते हैं ,यह सब सुनकर बहुत ही रोमांचित हो उठते थे सभी ।
मै अपने ज्ञानी दोस्तों से कहता यार ऐसा बड़ा पैराशूट मुझे मिल जाए तो मजा आ जायेगा।
बचपना ही तो था कम उम्र में समझ भी भला कितनी होती है , लेकिन खुरापाती दिमाग तो शांत नहीं बैठ सकता है ना । बस यही एक धुन सवार हो गई थी कि पैराशूट का आनन्द लेना ही है मुझे , लेकिन इच्छा पूरी हो भला कैसे ?
एक दिन दोपहर को तीन साढ़े तीन बजे के आसपास मैं घर में रखे बारह कड़ी वाले छाता को लेकर चुपचाप मम्मी को बताए बगैर बिल्डिंग के छत पर जा पहुंचा , मारे उत्तेजना के मेरा दिल बहुत ही तेज गति से धड़क रहा था । आज मैं इस छाते से पैराशूट का पूरा आनंद लूंगा , यही सोच सोच कर मारे खुशी के मैं पागल हुए जा रहा था ।
मैंने छाते को खोल लिया और उसे अपने दोनों हाथों से पकड़ कर खुले छत पर आगे बढ़ कर छत के बिल्कुल किनारे जा पहुंचा । और हिम्मत बांध कर नीचे कूदने की सोचा , लेकिन तभी देखा नीचे घर के बरामदे से सटे हुए बिजली के खंभे के तार छत के बराबरी से गुजर रहे थे, इस स्थिति में कूदने पर मैं बिजली के तारों में फंस सकता हूं और नंगी तारों में भीषण करेंट हो सकता है , जो कि मेरे लिए जानलेवा साबित हो सकता था । बिजली के तारों को फलांग कर लंबी छलांग लेने की हिम्मत नहीं हुई , बहरहाल अपने छाते को बंद कर अपना प्रोग्राम कैंसल करना ही मैंने ठीक समझा , और भारी मन से एक एक कदम रखते नीचे लौट आया ।
नीचे आने के बाद भी मन नहीं मान रहा था लग रहा था कि आज एक बहुत ही सुन्दर अवसर मैंने गंवा दिया , फिर सोचा क्यों ना मैं बरामदे से ही सड़क की ओर कूद कर देखूं ।
बस ये सोचते साथ ही मैंने तुरंत छाते को खोला और उसे दोनों हाथों से पकड़ कर बरामदे से सड़क की ओर कूद पड़ा , सड़क से बरामदे की ऊंचाई यही लगभग तीन या चार फुट होगी । लेकिन ये क्या मेरे कूदते साथ ही खुला हुआ छाता एक झटके से पूरा पलट गया और मैं गिरते गिरते बचा । मैं तो पल भर को सन्न रह गया , मारे घबराहट के मेरी हालत बहुत अधिक खराब हो गई थी , मुंह से कोई बोल नहीं फूट पा रहे थे ।
अगर मैं छत से छलांग लगा ही देता तो मेरी क्या हालत होती ? ये मैं समझ गया था ।
ईश्वर ने ही मेरे प्राणों की रक्षा की है यह मैं समझ गया था ।
लेकिन ये घटना मेरे दिलोदिमाग में काफी लंबे समय तक घर कर गई थी , और कई रातों को मैं ठीक से सो नहीं पाया , बाल मन पर घटना ने गहरा छाप छोड़ दिया था ।
मजे की बात तो ये है कि इस घटना का जिक्र मैंने कभी अपने पापा से नहीं किया , पापा से कहना मतलब भयंकर पिटाई होती पिटना पड़ता। सिर्फ मम्मी को बताया और खूब डांट खाई थी ।
आज मम्मी पापा नहीं हैं , सिर्फ और सिर्फ यादें ही हैं।
और इतने लंबे अर्से बाद यह सच्ची घटना आज मैं आप सभी मित्रों को सुना रहा हूं ।
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डॉ. मन्तोष भट्टाचार्य
मदर टेरेसा नगर , जबलपुर
( म.प्र )
संपर्क :- 9630016451