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काम करने का अपना अपना तरीका

कलयुग की कलम न्यूज

कथा कहानी लिखने के लिए अगर हम अपने आस पास नजरें दौड़ाएं तो अनगिनत कहानियां नित नए कलेवर में हर ओर बिखरे हुए नजर आते हैं , बस हमें एक उम्दा सतर्क नजरों की ही जरूरत होती है जिसे कि इस्तेमाल करके हम एक अच्छी कहानी का निर्माण कर सकते हैं, और इसके लिए जिंदगी के आपाधापी में दौड़ते भागते अपने कामों में फंसे रोजी रोटी के लिए जद्दोजहद करते अनेक पात्र आए दिन दिखते रहते हैं , और इन्ही लोगों के बीच से हमें अपनी कहानी का कथानक तैयार कर सकते हैं ।

ऐसी कई घटनाएं हैं जो कई बार दिल को छू गई और लगा कि ये घटनाएं अतीत के गर्भ में समा चुकी है।

वैसे किसी और को भले ही याद रहे या न रहे, या फिर किसी भी दूसरे शख्स के लिए यह एक सामान्य सी घटना ही रही हो , लेकिन मेरे लिए एक बहुत ही सुन्दर कहानी बन कर रह गई है जिस पर आज कुछ लिख सकता हूं और अपनी लेखनी का कमाल लोगों को दिखला सकता हूं ।

ऐसी ही कई घटनाओं में मैं यहां एक घटना का जिक्र करना चाहूंगा जो कि एक अर्सा गुज़र जाने के बाद भी मेरे दिल पर अमिट छाप छोड़ गया है ।

यह घटना वर्ष 1970 की है, उन दिनों हम लोग मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले के बैहर तहसील में रहते थे। मेरे पापा जो कि अब स्वर्ग वासी हो चुके हैं लोक निर्माण विभाग ( भवन तथा सड़क ) में स्टोर कीपर के पद पर कार्यरत थे ।

बैहर में जय स्तंभ चौक से मिशन स्कूल रोड पर अरण्य भारती कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय के ठीक बाजू में पापाजी का पी डब्ल्यू डी आफिस था । और आफिस के ठीक सामने सरकारी क्वार्टर में हम लोग रहते थे। उन दिनों मैं आठवीं क्लास का छात्र था और बैहर के शासकीय उच्चतर माध्यमिक शाला में पढ़ता था । सरकारी नौकरी में पापा के पदस्थ रहने के कारण प्रायः ट्रांसफर होता आया था और जहां जहां पापा का ट्रांसफर होता रहा हमारा पूरा परिवार एक जगह से दूसरे नए जगह पर यानी नए शहर में जा बसता था । बालाघाट से बैहर पापा का ट्रांसफर हुआ और हम लोग यानि मेरी मम्मी और अपनी तीन बहनों के साथ मैं पापा समेत बैहर आ गए । हालांकि मेरी चौथी और सबसे छोटी बहन का जन्म वर्ष 1975 में बालाघाट में हुआ जहां कि पुनः पापा का ट्रांसफर बैहर से बालाघाट हो गया था ।

बहरहाल नई जगह और अंजाने लोग इसके कारण काफी दिनों तक मन उदास रहा , बालाघाट में रहते साथ के संगी साथी सब छूट गए थे बैहर में , बार बार रह रह कर अपने पुराने दोस्तों की याद आती तो खूब रोना आता । तब मम्मी खूब समझाती रहती कि क्यों रोता है यहां भी तेरे बहुत दोस्त बन जाएंगे फिर सब अच्छा लगेगा ।

खैर स्कूल जाने पर धीरे धीरे मेरी जान पहचान बढ़ने लगी फिर आहिस्ते आहिस्ते बैहर में रहते रहते अच्छा लगने लगा ।

स्कूल में नरेश जायसवाल , ताज मोहम्मद, अजय शंकर पटेरिया, प्रभुलाल, विमल और मनोज जैसे दोस्त मिले और फिर सब कुछ अच्छा लगने लगा। इन सबमें मनोज को चित्र बनाने में महारत हासिल थी, स्कूल के लगभग सभी कार्यक्रमों में मनोज अपने चित्रकला के हुनर से सबको खूब प्रभावित करता रहा था। साथ ही उसे फोटोग्राफी का भी शौक था, उन दिनों ब्लैक एंड व्हाइट फोटो का दौर था। मनोज अपने कैमरे से अक्सर खूब तस्वीरें खींचा करता था हम सब की , दोस्तों की ।

बैहर के बस स्टैंड में ताज मोहम्मद का भोजनालय था जो कि ताज होटल के नाम से फेमस था ।

अजय शंकर के पापा की किराना दुकान थी वहीं बस स्टैंड के पास स्थित बाजार में , जहां से गल्ले से पैसे चुराकर अजय लेकर आता हम यार दोस्तों के खातिर , फिर वहीं के फेमस नीलकंठ के होटल में हमारी पार्टी होती और अजय सबको मीठी टिकिया खिलाता और वाहवाही लूटता ।

नरेश के पापा वहीं के प्रायमरी स्कूल में हेडमास्टर थे और उन दिनों नरेश बहुत ही चुलबुला उद्दंड लडका था।

ठीक इसी तरह प्रभुलाल भी बहुत डेंजरस था , स्कूल में किसी मास्टर ने अगर प्रभुलाल को क्लास में कभी बेतहाशा पीट दिया तो स्कूल की छुट्टी के बाद उस टीचर का सिर फूटना बिल्कुल तय था। न जाने किस एंगल से उड़ता हुआ ईंट का अद्धा साइकिल चलाते जाते हुए मास्टर की खोपड़ी से जा टकराता था और उसका सिर लहुलुहान । पता नहीं कौन था वो रहस्यमई शख्स ।

इन सभी महान विभूतियों के पास असंख्य गुण होने के बावजूद भी मेरी इन सबसे अच्छी दोस्ती थी और सभी मुझे बहुत चाहते थे ।

मेरे पास उन दिनों जो गुण था वो था स्टेज में किशोर कुमार जी के गानों गाने का शौक और साथ ही साथ कहानी की किताबें, कामिक्स, उपन्यासों में इब्ने शफी और कर्नल रंजीत की किताबें पढ़ने का जबरदस्त शौक था ।

पढ़ने का नशा तो आज की तारीख में भी कायम है, सिर्फ गायन का शौक जो कि स्टेज में होता था वह अब चिकित्सकीय कार्य के व्यस्तता के कारण कब स्टार मेकर में आकर सिमट गया है और वक्त मिलने पर अपने गायन के शौक को स्टार मेकर के जरिए से जिंदा रखे हुए हूं ।

           तो हुआ यूं था कि रविवार के दिन की घटना है , दिन के साढ़े दस से ग्यारह बजे के आसपास की बात है। मैं बैहर बस स्टैंड के पास स्थित ताज होटल में अपने दोस्त ताज मोहम्मद से मिलने पैदल ही चला गया था, उन दिनों मेरे पापा के पास रिले साइकिल थी और उनसे साइकिल मांगने में भी डर लगता था कहीं डांट न दें, वैसे भी पापा जी स्वभाव से तेज थे और मैं उनसे बहुत डरता था।

बहरहाल होमवर्क की कापी शायद लौटाने गया था उसके पास । फिर कुछ देर दुकान कै बाहर ही हम लोग खड़े खड़े बातें करते रहे और फिर मैंने कहा -” ठीक है यार मैं अब चलता हूं ।

ताज से विदा लेकर मैं लौटा अभी कुछ ही कदम चला था कि देखा मेन रोड के पास एक पुलिस मैन जो कि उस वक्त पूरी वर्दी में था और अपने मोटरसाइकिल ( शायद जावा मोटरसाइकिल ) की सीट से उतरा और अपने करीब से जाते हुए एक आदमी को जो कि दो पीपों ( टीन के डिब्बों ) में पानी भरकर एक बड़ी सी लचीली लकड़ी पर उठा अपने कंधों में लादे जा रहा था , तेज आवाज में रोका ।

इस पर वह पानी ले जाने वाला चौंककर रूक गया और अपने कंधे से लटके पानी के डिब्बों को नीचे उतारकर रख दिया। और इसके पहले कि वह गरीब कुछ समझ पाता उस वर्दीधारी ने उसके कंधे से लचकते बड़े से डंडे को खींचकर गंदी गंदी गालियां बकते उस डंडे से उस गरीब मजदूर को जानवरों की तरह पीटने लगा । और वह व्यक्ति जमीन में गिरकर छटपटाता रहा, तड़पता रहा , चीख चीखकर रोते हुए हाथ जोड़कर विनती करने लगा -” साहब माफ कर दो , साहब माफ कर दो आह मत मारो मुझे आह – – – – – ।

लेकिन इन चीखों का उस वर्दीधारी पर कोई भी प्रभाव नहीं पड़ा । वह निरंतर डंडे मारता रहा और धाराप्रवाह गंदी गालियां बकता ही रहा ।

मेरी आंखों के सामने इस तरह की घटना जीवन में पहली बार अचानक ही घटी थी ।मारे क्रोध के मेरा खून खौल उठा था , उस वक्त तो जी में ये आया था कि उस पुलिस वाले के हाथ से वह डंडा छुड़ाकर उल्टे उसे ही पीट दूं ।

कैसा निर्दयी है ये कमीना पुलिस वाला जो कि एक गरीब मजबूर लाचार आदमी को जानवरों जैसा पीट रहा है , और लोग तमाशा देख रहे हैं, किसी की हिम्मत नहीं हुई कि आकर उसे ऐसा करने से रोकें ।

मेरे बालमन में उस समय खाकी वर्दी के प्रति भीषण नफरत सी भर आई थी ।

तभी अचानक वहीं स्थित मिठाई की दुकान से देवदूत के रूप में एक वृद्ध दादाजी निकलकर आए और पुलिस वाले से बोले -” अब छोड़ो भी साहब मत मारो इसे जाने दो ।

” ये – – मा – – द – – र – – च – – – कल मेरे पास से पैसे मांगकर ले गया , लेकिन आज पानी लेकर नहीं आया , सुबह से इसका रास्ता देख रहा हूं बिना नहाए – – – – ? क्रोध में अनगिनत गालियों के बौछारें फेंकते हुए उस पुलिस वाले ने जवाब दिया और हाथ में पकड़ा डंडा वहीं फेंक दिया ।

जहां तक मुझे याद है उन दिनों आज की तरह पाइप लाइनें नहीं थी जैसा कि आज नलों से पानी घर घर में हमें आसानी से उपलब्ध है , बल्कि उन दिनों अधिकतर कूंवे के पानी का ही उपयोग किया जाता था ।

” क्यों भैया ऐसा तुमने क्यों किया ? बूढ़े दादाजी ने अब उस आदमी से पूछा जो रोता कराहता उठ खड़े होने की कोशिश कर रहा था ।

हां दादाजी मुझसे गलती हो गई , मैंने सोचा यहां होटल में एक खेप पानी डालकर सीधे साहब के बंगले में जाऊंगा । ” कराहते हुए वह पानी के डिब्बे उठाते हुए बोला ।

साथ ही पलटकर उसने देखा वर्दी वाले साहब अपनी मोटरसाइकिल में बैठ बहुत दूर निकल चुके थे ।

” मारने पीटने की जगह इसे धमकी भरे स्वर में डराकर भी तो बोल सकता था वह पुलिस वाला ।”ऐसा मन ही मन सोचते हुए मैं वापस घर की ओर लौटने लगा था ।

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डॉ. मन्तोष भट्टाचार्य

मदर टेरेसा नगर , जबलपुर

( म.प्र )

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