एक ही सिक्के के दो पहलू हैं लोकतंत्र और पत्रकारिता
स्वतंत्र पत्रकारिता ही जिंदा रख सकती है लोकतंत्र को
ताक़तवरों से सवाल पूछना ही है पत्रकार का मुख्य दायित्व
संक्रमित दौर से गुज़र रही है पत्रकारिता
बकौल वेलकम मग़रीज”सरकारें जिन बातों को छुपाना चाहती है वही केवल ख़बर है । इसके अलावा बाकी सब पब्लिक रिलेशन और प्रोपेगंडा है” ।
“सरकारों की तारीफ़ करना, सरकारी योजनाओं को जनता तक पहुंचाना पत्रकारिता नहीं सरकारी प्रचारतंत्र है ।पत्रकार का मूल काम ताक़तवर लोगों से सवाल पूछना है ।जब जब पत्रकारिता ने सवाल पूछना बंद किया है तब तब सरकारें निरंकुश हुई हैं” ।
जिस देश में पत्रकारिता स्वतंत्र नहीं होगी उस देश में लोकतंत्र ज़्यादा दिनों तक जिन्दा नहीं रह सकता क्योंकि लोकतंत्र और पत्रकारिता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।
जबसे पत्रकारिता का लोकतंत्रीकरण सोशल मीडिया, डिजिटल मीडिया के माध्यम से हुआ है तबसे लोकतंत्र पर ज़्यादा ख़तरे पैदा हुए हैं । जहाँ – जहाँ फेसबुक, व्हाट्सएप, अन्य सोशल मीडिया के प्लेटफार्म पहुंचे हैं वहाँ वहाँ अर्थरिटेरियन सत्तायें या अधिनायकवाद पनपा है ।
शातिर, चतुर, चालक राजनीतिज्ञों ने चुनावी लोकतंत्र का सहारा लेकर सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए सोशल मीडिया ख़ासतौर पर फेसबुक का इस्तेमाल समाज में ध्रुवीकरण करने के लिए किया है ।
धार्मिक, सामाजिक, देशिक, सैनिक यहां तक कि महामारी प्रतीकों के पीछे छुपकर सत्ता पर कब्ज़ा करने वाले अधिनायकवादियों की घिनौनी चालों के कारण वर्तमान में पत्रकारिता का संक्रमण काल चल रहा है ।
सरकार की कथनी और करनी की हक़ीक़त देश, समाज के सामने पेश करने वाले पत्रकारों के ख़िलाफ़ देशद्रोह जैसे गंभीरतम आपराधिक मुक़दमे दर्ज कराए जा रहे हैं । अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंटा जा रहा है ।
जिन मीडिया घरानों का निर्वहन और एक्जिस्टेंस सरकार के भरोसे निर्भर हो चुका है उनके न्यूज़ चैनल और अख़बार आकाशवाणी और दूरदर्शन को पीछे छोड़कर सरकार के पिछलग्गू बने हुए हैं ।
लोकतंत्र को अक्षुण्ण बनाये रखने, आम आदमी को सरकारी आतंक से सुरक्षा देने वाली जिम्मेदार संवैधानिक संस्थायें आज ख़ुद आतंकित दिख रही हैं ।
न्यायपालिका के अधिकांश फ़ैसले सरकार के पाले में सांसें ले रहे हैं । चुनाव आयोग सरकार के पक्ष में धृतराष्ट्र की माफ़िक अपने दायित्वों का निर्वहन कर रहा है । सूचना आयोग सरकारी हितों की ही सूचनाएं साझा कर रहा है ।नौकरशाही ऊंट बिलैया लै गई हां जू हां जू कर रही है । अन्य संवैधानिक संस्थाओं की हालत भी कठपुतलियों की माफ़िक बनी हुई है । ख़ुद को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ, प्रहरी कहने वाला मीडिया भांडों को भी पीछे छोड़ते हुए सरकारी विरुदावली का चारण कर रहा है ।यह तस्वीर लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक और ख़तरनाक है ।
मीडिया घरानों के पेड वर्कर पत्रकारों, सरकार की तरफ़ से अधिमान्यता का पट्टा गले में डाले पत्रकारों की पत्रकारिता सरकारों और राजनीतिक दलों की चौखट पर”सलामे इश्क़ मेरी जान ज़रा क़ुबूल कर लो”कहती और करती नज़र आती है ।
“प्रेस फ़्रीडम, एकेडमिक फ़्रीडम, मानव अधिकार, पारदर्शिता, महिला अधिकार, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, कमजोर लोगों पर अत्याचार, संवैधानिक संस्थाओं की स्वतंत्रता सहित अनेक पैरामीटरों की हालत बद से बदतर होती जा रही हो ।
जब लोकतांत्रिक सफ़ऱ रसातल की ओर अग्रसर हो तब देश के लोकतंत्र को बचाने का बड़ा दारोमदार माखनलाल चतुर्वेदी के पथ अनुगामी स्वतंत्र पत्रकारिता करने वाले स्वतंत्र पत्रकारों के कंधों पर है ।
अश्वनी बड़गैंया, अधिवक्ता
स्वतंत्र पत्रकार